गुरुवार, 12 मई 2016

Story In Hindi Pret Ya Kitab - हिंदी कहानी प्रेत या किताब

Story In Hindi Pret Ya Kitab - हिंदी कहानी प्रेत या किताब: कौन से लोग तुम्हे कब कब, कहाँ कहाँ तलाश रहे होंगे तुम्हे इसका कोई अंदाजा नहीं होगा और कोई अंदाजा होना भी नहीं चाहिए। अगर तुम्हे इस बात का अंदाजा हो जाए की लोग तुम्हे ढूंढ रहे हैं, तुम एक न एक दिन गाहे बगाहे किसी गली नुक्कड़ पर लडकियां घूरते, चाय की दूकान पर चाय पीते। सब्जी की दूकान से मटर खरीदते या फिर किसी दारुखाने में दारु पी के हंगामा करते हुए मिल जाओगे। उनकी तलाश पूरी हो जाएगी और तुम्हारे तलाश में भटकने वाले लोग कम हो जायेंगे।
तुम्हे पता है तुम्हारे खिड़की से ठीक सामने वाला जो घर है न उसमे एक पागल लड़की का प्रेत रहता है। तू विश्वास नहीं करोगे। पर ऐसा लोगो का मानना है। लोगो ने देखा है एक लड़की को उस घर में। छत पर किताबे लिखते हुए। मैंने भी देखा था उसे एक बार, छत की मुंडेर पर औंधी सी बैठी किताबे लिख रही थी। मुझे नहीं पता की वो किताबे क्यूँ लिखती है पर इतना जरुर पता है की अबतक उसने इतनी सारी किताबें तो जरुर लिख ली होंगी जितनी तुम्हारे घर की लाइब्रेरी में होंगी।किताबें लिखने के लिए प्रेत होना जरुरी होता होगा शायद।
"चाय में कितनी शक्कर होनी चाहिए?"
"एक चम्मच?"
"दो चम्मच?"
"तीन चम्मच"
दाल में कितनी नमक होनी चाहिए।
एक चुटकी?
दो चुटकी?
तीन चुटकी?


तुम्हारे बसते में कितनी किताबें होनी चाहिए ?
एक किताब?
दो किताब?
तीन किताब?
सौ किताब?
जीवन में कितना प्यार जरुरी है?
एक किलो?
दो किलो?
तीन किलो?
चार किलो?
आंकड़े सब कुछ नाप सकते हैं क्या?
हाँ
तुम कितनी दफा मरे हो?
आंकड़े झूठे होते हैं
लोग जलते है। लोग किताबे लिखते हैं। लोग किताबे जलाते हैं।किताबे जलती हैं। किताबे लोगों को जलाती है। लोग किताबों से बाहर जलते है। लोग किताबों के अन्दर जलते हैं। लोग किताब लिखकर जला देते हैं। लोग किताब जलाकर उसकी राख से किताब लिख देते हैं। पहले लोग लोग थे किताबे किताब थी। लोग अब किताब हो चुके हैं, किताब अब लोग हो चुकी है
।बड़ी बड़ी लाइब्रेरीयों में बहुत सारे लोग काट रहे हैं अज्ञात वास किताबों के रूप में ।
पागल लड़की का प्रेत लिखता है किताबें । पर तुम्हारे घर में कोई खिड़की नहीं है। वो आईना है। जहाँ से दिखता है पागल लड़की का एक प्रेत किताबे लिखते हुए। तूम आदमी नही हो। प्रेत नही हो। तुम क्या हो।तुम किताब हो क्या। मैं प्रेत हूँ क्या। ये सब सपना है क्या ? हम पागल हैं क्या ?
गुम हो जाने वाले लोग क्या बनते होंगे?
प्रेत या किताब


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(C) Arahaan

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

आईये रातों को सिराहने पे रख कर दीवारों पर सुबह रंग दे. ये सोच कर की ये दुनिया सच्ची नहीं है, वास्तविक नहीं है. हम दस मंजिले से कूद जाए. अपने शरीर से बहते हुए खून और उखड़ती साँसों को धोखेबाज कहते हुए हम सबको गन्दी गालियां दे. ऊपर पूल पर फर्राटे से भागती मेट्रो रेल में, बैठे लोगो की घर पहुँचने की जल्दबाजी, ईंट के टुकड़े रगड़ कर लिख दे. दो मिनट दुनिया को पॉज कर के, सबके घर में ताले लगा दें. इन तालों की सारी चाभियाँ नालों में फेंक दें. किसी सीसी टीवी कैमरे की फूटेज में किसी को चूमते हुए नजर आये और किसी बड़ी सोसाइटी के वाचमैन बन लड़कियों को घूरें. एक ठंडी चाय पीते हुए हम कॉलेज जाने वाले, नौकरी करने वाले, प्यार में पड़ने वाले गिरगिटों पर उपन्यास लिखें.  प्रेमिकाओं की आँखों से बारीकी से प्रेम निकालने का हुनर सीखे. आईये ये मान कर  की हम एक इच्छाधारी नाग है, हम सबकी शराब जूठी करते जाए. लाशों की जेब से पैसे चुराकर, हम मीठे हथियार खरीदें और  कब्रिस्तान में दफ़न बच्चों को बाँटें. किसी न्यूज़ चैनेल में लाइव इंटरव्यू देते हुए, सुन्दर एंकर के नाक पे घूंसे मारकर, मुस्कुराते हुए पूछे "आपको कैसा लग रहा है". आइए हम सभ्य समाज में थोड़ा सभ्य बने. आईये हम अपनी जेब का आखिरी नोट एक झूठ बोलते हुए बच्चे को दे दें और पैदल १५ किलोमीटर चल कर घर पहुंचे. आईये अपनी अच्छाई को गालियां देते हुए अपराध करें. आईये एकदिन सोशल एक्सपेरिमेंट करते हुए अपने अंदर के शैतान को जगा लें और राम का लिबास पहनकर रावणों के पुतले जलाएं. आईये एक दिन थोड़ा सा पागल होकर, सड़कों पे चिल्लाएं, भीड़ जुटाएँ, नारे लगाएं और बेहोश कर मर जाएँ. पागलों के सबसे बड़े भगवान के कहा है की उस पार की दुनिया बहुत खूबसूरत है. 

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

इंतजार

उसने अपनी डायरी में कई दफा लिखा है की उसे इंतजार करना पसंद नहीं. उसे इतंजार करने से इतनी चिढ है की अगर इंतजार करना किसी व्यक्ति का नाम होता तो वो उसे दस तल्ले से नीचे धकेल देता या फिर उसकी आँखों में मिर्च उड़ेल देता. लेकिन वो उस दिन पहली बार उस कॉफी हाउस की मेज पर बैठा किसी का इन्तजार कर रहा था. और बार बार सड़क की तरफ देख रहा था.

Photo: tumblr.com


सड़क उस दिन भी किसी शायर के दिल की तरह तमाम तरह के ख़्वाबों के शोर से गूँज रहा था. सड़क पर चलती गाड़ियां, अपने मोबाइल स्क्रीन्स पर गुम हो चुके लोग, उसे किसी नाटक के ख़राब किरदारों की तरह लग रहे थे. उन किरदारों की तरह जिन्हे जबरदस्ती नाटक का हिस्सा बनाया गया हो. वो सड़क पर बस इन्तजार करती हुई लडकियां देखना चाहता था. और शहर के इर्द गिर्द इमारतों में शराब या कॉफी पीते लड़के. कॉफी हाउस में बैठी लड़कियां अपने प्रेमियों पर किसी बात पर झगड़ रही थी. वो एक पल के लिए उन लड़कियों को तमाचे मारकर सामने वाली सड़क पर इन्तजार करने के लिए भेजना चाहता था और उनके साथ बैठे लड़को  को शराब पिलाना चाहता था. उसे रह रह कर मन में अजीब से ख्याल आते. उसे दुनिया भर के रेस्त्राओं में बैठे इन्तजार करती लड़कियों के चेहरे नजर आते. सुनसान बस अड्डो पर बस के इन्तजार में बैठी लडकियां नजर आती. वो झुंझलाता हुआ बैरे को एक और कॉफी लाने का आर्डर देता और फिर सामने मेज पर पड़ी टिश्यू पेपर उठाकर उगते सूरज का चित्र बनाने लगता. उस दिन उसने ५ कॉफी आर्डर किये और फिर मेज से वो टिश्यू पेपर उठाकर चुपचाप सड़क पर निकल आया. सड़क अब भी वैसी ही थी. भागते हुए लोगो की भीड़ वाली. वो उस भीड़ से थोड़ा झुंझला कर सड़क किनारे बैठ गया. उसने अपने पर्स से एक लड़की की तस्वीर निकाली. कुछ देर देखने के बाद उसने वो तस्वीर फिर से पर्स में रख दी. इस बीच पानी की कुछ बूँदें उसके आँखों में डेरा जमा चुकी थी. उसने अपने जेब से वो टिश्यू पेपर निकाली पर आँखें नहीं पोछी. उसने उस टिश्यू पेपर सूरज के नीचे एक बेंच जैसी आकृति बनायीं. फिर एक लड़के जैसी आकृति बेंच पे बैठे हुए बनायी और बूत बन बैठा रहा.
उस रोज शहर के अखबार के एक कोने में एक तस्वीर के साथ शोक सन्देश का इस्तेहार छपा था. इत्तेफ़ाकन इश्तेहार में छपी लड़की की तस्वीर उसके पर्स में रखी लड़की की तस्वीर से हु ब हु मिल रही थी. 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

उजला सा इक आसमान


सामने सिगरेट की एक डिब्बी पड़ी थी, पर वो उसे छू तक नहीं रहा था, चुप चाप आसमान की तरफ देख रहा था। सिगरेट की डिब्बी के ठीक बगल में कुछ कागजो की एक फाइल थी, जिसे कभी वो देखता और किसी सुखी नदी की तरह उदास हो जाता। कभी वो अपने बीस मंजिला फ्लैट के टेरेस पर बैठ कर घंटो आसमान की तरफ देखता था, सिगरेट पीता था। पर उस दिन वो घंटो आसमान को तकता रहा, मानो जैसे बादलों में किसी खोये खजाने का नक्सा तलाश रहा हो या फिर बादलों में उन खंडहरनुमा महलों को ढूंढ रहा हो, जिसे कभी वो अपना घर कहता था। वो कभी आसमान को तकता, कभी सिगरेट की तरफ देखता, कभी छत की मुंडेर पर रेंग रही किसी चींटी को मसल देता और मुस्कुराने लगता। अगले ही पल वो किसी अमावस की रात की तरह उदास और शांत हो जाता।

नीचे की रंगीन दुनिया में भी चींटियों के माफिक लोग मसल दिए जाते थे, बाकी चींटियों के झुण्ड में थोड़ी हलचल होती पर कुछ पल के बाद सब कुछ शांत हो जाता था। चींटियाँ, चींटियों से खरगोश बन जाती और फिर अपने बिलों में दुबक जातीं। उसे दुनिया खिलौने की तरह लगती, जहाँ खिलौने, खिलौनों से खेलते और कागजो पर गणित के कुछ समीकरण, विज्ञानं के कुछ सिद्धांत लिखकर, अपने आप को इंसान घोषित कर लेते। उसे कागजों से नफरत थी, उसका मानना था कागज़ पर सिर्फ कवितायें ही लिखी जानी चाहिए और बेवकूफ लोग कागज पर चोरी, डकैती, लूट, बलात्कार, आत्महत्या की खबरे छाप देते हैं। कागज़ पर किसी का मेडिकल रिपोर्ट छाप देते हैं जिन्हे पढ़ने के बाद कविता लिखने वाले कविता लिखना छोड़ देते हैं। उसे ऐसे इंसानों से भी नफरत थी, जो इंसान होने का दिखावा करने के लिए रंगीन मुस्कुराते मुखौटे खरीदते थे, जिन से उनका सपाट, भावना विहीन चेहरा छिप सके। वो सड़क पर किसी दम तोड़ते इंसान को देखे तो, जेब से कोई काला नक़ाब निकाल, चेहरे पर चढ़ा कर दूर निकल ले। उसे इंसान होने से भी नफरत थी इसलिए वो इंसान नही बना रहना चाहता था।
वो उस दिन घंटो बैठ आसमान को ताकता रहा, बीच बीच में हर एक घंटे पर हू ब हू उसके जैसे दिखने वाला एक लड़का, ठीक उसके जैसे कपडे पहने हुए, उस से कुछ दूरी पर, उसी मुंडेर पर बैठा, एक सिगरेट सुलगाता, आसमान की तरफ तलाश भरी निगाहो से देखता और जोर से रोता फिर एक फाइल से कुछ कागज़ निकाल कर फाड़ता, और कागज़ के टुकड़े हवा में उड़ाकर, मुंडेर से छलांग लगा देता। जब भी उसके जैसे दिखने वाला लड़का छत से छलांग लगाता, वो एक चींटी को मसल कर बहुत देर तक हँसता।

सोमवार, 29 जून 2015

उन दिनों




उन दिनों कुत्ते ज्यादा भौंकते थे रातों में
प्यार के लिए
*शहर के दुकानदार बेच रहे थे 100 रुपये में दो चादर
*चोर उन दिनों माँओं को बताते थे पुलिस की नौकरी के बारे में
*मैट्रिक इंटर के लड़के छतों पर बिना सीढ़ी के चढ़ते हुए गिरा करते थे
*मेडिकल के दुकानों में गर्भनिरोधक गोलियां धड़ल्ले से मांग लेती थी लड़कियां
*उन दिनों कंपनियां माँ के हाथ के खाने के साथ माँ का प्यार भी डब्बो में बेचने लगी थी
*टीवी पे बिगबॉस देख के दरवाजे बन्द कर दिए जाते थे रातों में
उन्ही दिनों जब कुत्ते बहुत भौंका करते थे रातों में
और सौ रुपये में मिलती थी दो चादर
मेडिकल स्टोर से धड़ल्ले मांग लेती थे गर्भनिरोधक गोलियां
प्यार का बाजार बहुत फला फूला
और कुछ लोगो का उठने लगा भरोसा प्यार से

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

अपने हाथो में ले
गिनो
मुट्ठी भर चावल
और हां अबकी बार भी हिसाब गलत करना
बाहर कुछ भूखे बच्चे बैठे हैं
हाथो में थालियां और आँखों में उम्मीद लिए
सुनो, हर बार की तरह
इस बार भी बोल देना एक झूठ
दे देना उन बच्चों को एक दिलासा
मैं भी बैठा हूँ उन बच्चों के बीच
थोड़ा सा भूखा और झुंझलाया सा

बोरवेल में सच का गिरना


दुनिया कह रही थी
"बोरवेल में बच्चा गिरा है"
दुनिया अपने हाथ कमीज में छिपा कर कह रही थी
"हमारे हाथ कटे है"
दुनिया चिल्ला चिल्ला कर उस से कह रही थी
"उतरो नीचे, तुम्हारे पास कमीज नहीं"
"तुम्हारे हाथ दीखते हैं"
वो दुनिया से नही डरता था
दुनिया की परवाह नही थी
पर बच्चे के बारे में सोच कर उतरा
उसे सच्चाई पसंद थी
गहराई पसंद थी
उसे अँधेरे में रौशनी की तलाश पसंद थी
वो उतरा
बोरवेल में उतरता गया
उसे कोई बच्चा ना मिला
पर गहराई में उतरने पर उसे सच्चाई मिली
वो सोचा
दुनिया को गलतफहमी हुयी है
"कोई बच्चा नहीं गिरा है बोरवेल में"
"हाँ पर सच्चाई जरूर दफ़न है इस बोरवेल में"
वो नीचे से चिल्लाया
"यहां कोई बच्चा नहीं है"
वो चिल्लाता रहा
"यहाँ कोई बच्चा नहीं है"
उसकी आवाज टकराती और लौट आती
थक कर जब वो चुप हुआ तो,
उसे दुनिया के चिल्लाने की एक धीमी आवाज सुनाई दी
"बोरवेल में शराबी गिरा है"