रविवार, 23 अक्तूबर 2011

सपने

मैं सपने देखता हूँ 
हाँ मैं भी सपने देखता हूँ 
कभी जागते हुए कभी सोते हुए 
कभी पर्वतों से ऊंचे  सपने 
कभी गुलाब से हसीं सपने 
कभी खुद को समझने के सपने 
कभी खुद को जीतने के सपने 
कभी खुद को हारने के सपने 
मैं हर तरह के सपने देखता हूँ 
मैं हर रंग हर आकार हर हर स्वाद के सपने देखता हूँ 
कभी नीले कभी गुलाबी कभी
कभी तीखे कभी मीठे  
कभी छोटे  कभी बड़े  
मैं हर तरह के सपने देखता हूँ

मेरे सपने बहूत जल्दी टूट टूटे हैं
और बिखर जाते हैं
मेरे सपने कांच की तरह होते हैं 
एकदम साफ़ और पारदर्शी 
दिख जाते है सबको मेरे सपने 
मैं छिपाकर नहीं रख पाता इनको 
इसलिए लोग खेलने लगते हैं इनसे 
और टूट जाते हैं मेरे सपने खेल खेल में 
मैं कोशिश करता हूँ इन्हें   फिर से सजाने की 
पर चुभ जाते हैं मेरे ही सपनो के महीन टूकड़े 
और मैं दर्द से तड़पता रहता हूँ 

मुझे  अफ़सोस नहीं होता 
जब ये सपने टूटते  हैं 
अब आदत हो गयी हैं इनके टूटने की 
अब तो अधूरा सा लगता है 
जब नहीं  टूटता  है कोई सपना
मन व्याकुल हो जाता है जब नहीं मिलता है सुनने को वो आवाज
जो पैदा होती है इनके टूटने पर

मैं हर वक़्त सपने देखता हूँ
मैं देखना चाहता हूँ उन चीजों को सपनो में 
जिन्हें मैं हकीकत में चाह कर भी नहीं देख सकता 

मैं सपनो में तितलियों को देखता हूँ 
रंग बिरंगी, अनगिनत तितलियों को 
पता नहीं कहाँ से आती हैं ये तितलियाँ 
और फिर भरने लगती है रंग मेरी कोरी ज़िन्दगी में 
पर अचानक! एक एक कर मरने लगती हैं ये तितलियाँ 
और दब जाती हैं मेरी ज़िन्दगी इनकी लाशों तले
और टूट जाता है मेरा सपना रंगों का 
ज़िन्दगी रह जाती है यूँ हीं श्वेत श्याम 

मैं देखता हूँ सपनों में खुद को 
एक निर्जन टापू पर 
बेतहाशा दौड़ते हुए 
कुछ ढूंढते हुए 
मुझे दिखाई देता है सपने में 
मेरा झून्झालाया सा चेहरा 
मुझे दिखाई देती है एक प्यास मेरी आँखों  में
तभी दिखता है दूर  मुझे एक जहाज 
और मैं चिल्लाता हूँ 
खुश  हो जाता हूँ की
आ रहा है एक  जहाज 
जो मुझे ले जाएगा मुझे अपने घर तक 
लेकिन डूब जाता है ये जहाज 
मेरे पास पहुँचने से पहले 
और एक चीख के साथ टूट जाता है मेरा सपना

इसी तरह क्रम  जारी है सपने सजाने का 
और टूटने का
लेकिन मैं सजाता रहूँगा सपने 
और पूरा  भी करूंगा 
क्यूंकि अभी तक किसी सपने में 
दबी है मेरी ज़िन्दगी 
उन तितलियों के लाशों तले 
रंग भरना है ज़िन्दगी में 
इसलिए मैं सपने देखूंगा 
मैं देखूंगा सपने 
और पूरा भी करूंगा 
क्यूंकि मैं अबतक भटक रहा हूँ
उसी निर्जन टापू पर 
एक जहाज के इंतज़ार में
मुझे पहुंचना है घर तक
मुझे करना है  है  सपना 



ब्रजेश सिंह

सर्वाधिकार सुरक्षित 
२०११ 

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

एक गजल



दूर आसमान में जंवा हो रहा एक चाँद
इधर जिंदगी का सूरज ढलता जा रहा है

कोई इत्तेलाह उन्हें भी कर दे की 
उनको पाने का ख्वाब दिल में पलता जा रहा है

हम इसी फिराक में हैं की शाम ढलने से पहले घर को जाएँ
इधर वक्त का पहिया बढ़ता ही जा रहा है

खुद को बनाने की कोशिश है कैसी
जो सबकुछ अपना बिगडता जा रहा है

हम अपनी बात उसे बताएं कैसे
वो अपनी ही कहानी कहता जा रहा है

उसको पुकार रहें हैं हम कितनी देर से
 वो है की अपनी धुन में चलता जा रहा है

ऊपर आसमान बाहें फैलाये खडा है
पंक्षी पिंजड़े में तडपता जा रहा है

कोई खोल क्यूँ नहीं देता ये पिंजडा
पंक्षी के दिल में बगावत का शोला भडकता  जा रहा है

अब नहीं याद आते है दादी नानी के किस्से
जवानी की दहलीज में बचपन बिछड़ता ही  जा रहा है

ढल जायेगा सूरज यूँ ही, रास्ता दिखा दे उसे अरहान
मंजिल की तलाश में मुसफोर भटकता ही जा रहा है

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान'