रविवार, 15 जुलाई 2012

मेरी कवितायें

मैं यूँ ही लिख देता हूँ कवितायें 
उड़ेल देता हूँ अपने अंदर के द्वंद को 
छोड़ देता हूँ शब्दों को तैरने के लिए 
अपने अंतर्मन के अथाह समंदर में 
मेरे लिखे हर शब्द, हर वाक्य में छिपी होती हैं, 
मेरी भावनाएं, मेरी पीडाएं, मेरी इच्छाएं 
जो खुद चुनना चाहती हैं अपना लक्ष्य 
कहना चाहती हैं मेरे अंदर का सच 
लोग पढते हैं मेरी कविताओं को 
और फिर मुझे देखते हैं, बड़े रहस्यमयी तरीके से 
जैसे की मैं कोई पहेली हूँ
वो मेरे चेहरे पर भी पढ़ना चाहते हैं वो भाव
जो मेरी कविताओं में व्यक्त होता है
लेकिन माथे पर नहीं होती है मेरे कोई शिकन
चेहरे पर नहीं कोई उदासी, कोई विरक्ति
जो मेरी कविताओं में दिखाई देती है
इसलिए लोग घूरते मुझे बड़े देर तक
टटोलते हैं मेरी अंदर की भावनाओ को
जानना चाहते है मेरी कमजोरियों को
कोशिश करने लगते है वो मेरी दुखती रगों पर हाथ रखने की
और मैं अछूता नहीं रह पाता उनकी इन भेदती नजरों से
पकडे जाने लगता है मेरे अंदर का सच
मेरी कविताओं का सच
मेरे जीवन का सच
और डर बढ़ जाता है मेरी भावनाओ के उजागर होने का
सामने आने लगता है रहस्य मेरी कविताओं का
और तब मैं यह कहकर बचने की कोशिश करता हूँ
"की ये कवितायेँ मैंने नहीं लिखी, कहीं से चुराई है"

ब्रजेश कुमार सिंह 'अराहान' 



१८ मार्च २०१२