सोमवार, 13 अगस्त 2012

कोई था

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कोई था जो हमारी शामें गुलजार किया करता था 
कोई था जो दरिया किनारे हमारा इंतज़ार किया करता था 
कोई था जो हम पे अपनी जान भी निसार करता था 
कोई था जो हम से भी प्यार करता था 

कोई था जिसके आने से ख़ुशी लौट आती थी 
कोई था जिसके जाने से आँखें नम हो जाती थी
कोई था जिसका तस्सव्वुर में आना जाना था 
कोई था जिसका ये दिल भी दीवाना था 
कोई था जो छिप चीप के हमारा दीदार किया करता था
कोई था जो हमारी सलामती के लिए अपनी खुशियाँ दरकिनार करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जिसका थाम के हाथ हम हर सीढ़ी चढ़ लेते थे
कोई था जिसकी आँखो में हम हर बात पढ़ लेते थें
कोई था जिसके लिए धड़कता था हमारा दिल भी
कोई था जो था हमारा रास्ता भी मंजिल भी
कोई था जो नजरो से हमारे दिल पे वार करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जो दिया बन जाता था अँधेरे में
कोई था संग हमारे हर शाम हर सवेरे में
कोई था संग हमारे सावन की घटा, वसंत की पुरवाई में
कोई था संग हम में हमारी परछाई में
कोई था जो हमको 'दूरियो से दूर बार बार किया करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जिसने संग हमारे खुशियो के बीज बोये थे
कोई था जिसने हमसे जाने कितने सपने संजोये थे
कोई था जिसने हमसे लाल जोड़े की, की अर्जी थी
पर सफ़ेद कफन था उसके नसीब में भगवान् की यही मर्जी थी
कोई था जिसके लिए हम पहली बार टूटे थे
बंद भीतर, दिल के जज्बात आँखों से टूटे थे
कोई था जो हमारे आंसूओं का ऐतबार किया करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जिसको ये दिल हर वक़्त याद किया करता है
गम भूलाने के लिए मयखाने आबाद करता है
वो जब भी हमें तनहा पाती हैं
हवाओं के संग पता नहीं कब चली आती है
बादलो और हवाओं में उसके अक्स का ये दिल दीदार करता है
कोई था जिसको ये दिल भी प्यार करता है

अराहान

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

वो लोग जो असफल होते हैं प्रेम में

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वो लोग जो असफल होते हैं प्रेम में 
अकसर कवितायेँ लिखा करते हैं 
रेत पर घरौंदे बनाते हैं 
तितलियों का पीछा करते हैं 
ओंस इ बूंदों ओ पिने की कोशिश करते हैं 
तारे गिना करते हैं 
समुन्दर की लहरों पर कागज़ के नाव तैराया करते हैं 
सुनसान पर टहला करते हैं 
मातम मानते हैं 
दर्द भरे नगमे गाते हैं 
बेवफाई की कहानियाँ पढते हैं 
और इन सब से थकने के बाद 
वे फिर से प्रेम करते हैं 
और असफल हो जाते हैं 

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान"
10 Aug 2012 

रविवार, 5 अगस्त 2012

मेहरुन्निसा क्या वो तुम हो

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मेहरुन्निसा क्या वो तुम हो
चाँद पर बैठी
चरखा कातती हुयी
मेहरुन्निसा क्या वो तुम्ही हो
जो लटका देती है ख्वाबों के रंग का एक पतला सूत
मेरे छत पर
और शायद इन्तजार करती हो मेरा
उसपर लटककर ऊपर आने का
अगर वो तुम्ही हो तो
भेजो कोई मोटी रस्सी
वो सूत का पतला धागा नहीं उठा सकता मेरा वजन
चौंको नहीं, मैं पहले की तरह ही दुबला पतला हूँ '
पर मेरा वजन बढ़ चुका है
मेरी दिल के कोठरियों में दबी उन अनकही बातो के भार से
जिन्हें मैं तुम्हे अक्सर बताने की कोशिश करता था पर बता ना सका
जिन्हें तुम सुन लेती तो,
 यूँ नजर ना आती चाँद पर चरखों से खामोशियों के धागे  कातते हुए
आसमान से नहीं टपकती तुम्हारे रोने की गीली आवाज
मेहरुन्निसा फ़ेंक दो जल्दी से कोई मोटी सी रस्सी
मैं ऊपर आकर तुम्हारे स्पर्श के गुरुत्वाकर्षण से
कम करना चाहता हूँ अपना वजन
बता देना चाहता हूँ वो सब
जिस से तुम अबतक अनजान हो
मेहरुन्निसा मैं तुमसे तबसे मोहब्बत करता हूँ
जब तुम एक कैटरपिलर हुआ करती थी
और मैं उलझा हुआ रहता था तुम्हारे रेशमी धागों में
तुम देखती थी हमेशा मुझे अपने मुस्कराहट की दूरबीन से
और मैं झेंपता था सुलझने की हर नाकामयाब कोशिश पर
मैं उलझा हे रहा उन रेशमी धागों में और
नजाने कब तुम तितली बन कर उड़ गयी
मुझे पता ना चला
तुम्हारे जाने के बाद मैं तुम्हे ढूँढता रहा
जब भी दिखाई देती कोई तितली
मैं पीछा करता उसका
और इसी कोशिश में  मैं कितनी बार गुमशुदा हो चुका हूँ
मुझे अब भी पता नहीं की कहाँ हूँ मैं
पर जहां भी हूँ मैं
वहाँ एक चाँद है
जिस पर तुम बैठी हो
चरखे से  सूत कातती हुयी
और शायद सुन रही हो मेरी बातें ध्यान से
मेहरूनिसा अगर तुम सुन चुकी हो सबकुछ
तो मेरी एक ख्वाहिश पूरी करना
मैं कल एक बेदाग़ चाँद देखना चाहता हूँ

अराहान
4 Aug 2012








शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

खिड़कियों से झाँककर देखे गए सपने


खिड़कियों से झाँककर देखे गए सपने
सपने नहीं होते
ये हकीकत का ही हिस्सा होते है
इन सपनो में नहीं दिखाई देती है खूबसुरत परियां  
ना ही कोई उड़ने वाला घोड़ा दिखाई देता है
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपनों में
एक नाला होता है
एक गंदा सा, रुका सा नाला
जिसके किनारे बैठ के रोता है एक छोटा बच्चा
शायद इसलिए क्यूंकि खो चुका होता है उस बच्चे के एक सिक्का
और उस एक सिक्के के खोने से खो जाती है उस बच्चे की खुशियाँ
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपनों में
दिखाई देता है एक बुढा बरगद का पेड़
जिस पर एक गौरय्ये का जोड़ा बना रहा होता है एक घोसला
तिनका तिनका चुनकर लाते इन परिंदों को गुस्सा नहीं आता है तुफानो पर
टूटता नहीं है इनका हौसला
भले ही टूट जाता है हर बार इनका घोसला
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपनों में
दिखाई देती है एक जद्दोहद
एक तड़प
एक दर्द
एक आकांक्षा
इन सपनो में दिखाए देने वाला रुका हुआ नाला भी इशारा करता है चलते रहने का
उस बच्चे के आंसू भी देते हैं हिदायत हमेशा हँसते रहो
टूटते घोसले भी सिखाते हैं संवरने का हुनर
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपने,
सपने नहीं होते
ये होते हैं हमारे हकीकत का हिस्सा
जिसे हम आमतौर पर जिंदगी कहते हैं

ब्रजेश कुमार सिंह  अराहान”
3.08.2012



गुरुवार, 2 अगस्त 2012

"रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है "

"रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है"
स्कूल के टॉयलेट के दीवारों पर परमानेंट मार्कर की सहायता से बेरहमी से उकेरे गए ये शब्द मेरे जीवन के सबसे घिनौने, डरावने और खतरनाक शब्दों में से एक थे. उस दिन मैं क्लास में बहुत शांत रहा. रोज की तरह आज मैंने अकाउंट्स के टीचर की पतली आवाज की नक़ल नहीं उतारी और नाही निहारिका की तरफ मुड़कर देखा, उस दिन मैं घर लौटते वक्त रोज की तरह 'निहारिका गेम पार्लर" में जाकर जी.टी.ए वाईस सिटी भी नहीं खेला, आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था की मैं उस दूकान में न गया हो, मुझे गेम से ज्यादा लगाव गेम पार्लर के नाम से था. वो दिन बहुत भारी सा बीता. हर वक्त दिमाग में वही शब्द, किसी कर्कश आवाज की तरह शोर मचा रहे थे. धीरे धीरे ये शब्द दृश्यों में बदलने लगें.
उस दिन हर चैनल पर एक ही बात फ्लैश कर रही थी "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है"
मैं चैनल पर चैनल बदलता जा रहा था पर दिमाग पर रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर ही सवार थे


*(नहीं, निहारिका कक्कर रोहित अग्रवाल पर सवार थी)


उस दिन के बाद से मैंने कभी टी.वी नहीं देखी, शायद इसलिए क्यूंकि मैंने उस दिन घर में मौजूद एकलौती टी.वी को तोड़ दिया था या फिर इसलिए की मुझे हर चैनल पर रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर ही दिखाई दे रहे थे.
उस दिन मैंने ४ साल के टिंकू को सिर्फ इसलिए एक थप्पड़ मार दिया क्यूंकि वो मुझसे फाईव स्टार खिलाने की जिद कर रहा था. यूँ मुझे बच्चे हद से ज्यादा पसंद है और इसी वजह से आस पड़ोस के बच्चे भी मुझमे जादा रूचि रखते हैं पर उस दिन ना जाने क्यूँ मैंने उस बच्चे को एक थप्पड़ मारा, शायद इसलिए क्यूंकि उसका नाम टिंकू उर्फ तिलक अग्रवाल था.

उस दिन इस घटना के बाद मुझे लगा की मैं एक बुरा इंसान बन चूका हूँ. मेरे जेहन में बुरे इंसान की जो छवि थी उसके अनुसार बुरा आदमी बनने के लिए शराब पीना, लंबी दाढ़ी रखना और गाली देना अनिवार्य था. उस समय मैं सिर्फ 16 का था, और मेरे चेहरे पर दाढ़ी के नाम पर सिर्फ कुछ रेशमी बाल ही उगे थे. उस दिन मैंने पूरी तरह से बुरा आदमी बनने के लिए सबसे पहले पापा की शेविंग किट चुराकर शेविंग की, मैंने कहीं सुन रक्खा था की शेविंग करने से जल्दी दाढ़ी आती है और फिर पापा के ही वैलेट से पैसे चुराए और शराब पी. उस दिन मैंने बेवजह अपने मकान मालिक को "भैन्चो" कहा.

*(बेवजह नहीं
, मुझे बुरा आदमी बनना था और उसके लिए गाली देना जरूरी था) 

उस दिन मैं सड़कों पर बेतहाशा घूमता रहा. उस दिन ऐसा पहली बार हुआ जब मैं रात के सात बजे घर में ना होकर घर से बाहर  8 किलोमीटर दूर श्याम टाकीज के सामने वाली सड़क पर आवारागर्दी कर रहा था. उस दिन मैं अपने आप को किसी आर्ट फिल्म के नायक की तरह समझ रहा था और मुझे एकबारगी ये लगा की मैं आज जो कुछ भी कर रहा हूँ हकीकत में नहीं कर रहा बल्कि किसी फिल्म की शूटिंग कर रहा हूँ. मैं उस समय यह सोच रहा था की एक 11A की लड़की का एक 12C के लड़के से क्या लेना देना हो सकता है. और आज जिसने भी टॉयलेट के दीवार पर निहारिका कक्कर के बारे में जो कुछ लिखा है वो बदले की भावना से लिखा होगा, ये भी सकता है की उस लड़के ने निहारिका कक्कर को प्रोपोज किया हो और उसके ठुकराने पर लड़के ने अपना गुस्सा टॉयलेट के दीवार पर निहारिका के बारे में उलूल जुलूल लिखकर उतारा हो. मैं यह सोचकर थोड़ा आस्वश्त हुआ ही था की मन में एक और ख्याल आया की उस लड़के ने रोहित अग्रवाल का ही नाम क्यूँ लिखा? ये सवाल मेरे जेहन में एक जिद्दी जोंक की तरह चिपक गया. मुझे लगा की आज मुझे किसी आर्ट फिल्म के नायक की बजाये किसी जासूसी फिल्म के नायक की तरह सोचना चाहिए और जल्द से जल्द मुझे इस टॉयलेट वाली घटना के तह तक पहुंचना चाहिए. टॉयलेट वाली घटना के नाम से मुझे याद आया की मुझे जोर की पेशाब लगी है इसलिए श्याम टाकीज के पीछे वाली दीवार के सामने पेशाब करने लगा. उस दीवार पर साफ़ अक्षरों में लिखा था "देखो, गधा मुत रहा है" पर ना जाने मुझे ऐसा क्यूँ लगा की यहाँ भी किसी ने लिख दिया है की "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है ". मैं उस समय अपने पेशाब से उस दीवार पर लिखे इस घिनौने वाक्य को मिटाने की कोशिश करने लगा पर मैं सफल न हो सका. उस दिन मैंने गुस्से में आकर श्याम टाकीज के आसपास जितने भी (A) सर्टिफिकेट वाले फिल्मों के पोस्टर थे फाड़ डाले. "अकेली रात" से लेकर "मचलती हसीना" तक जितने भी फिल्म के पोस्टर थे उनमे मुझे दो ही लोग दिखाई दे रहे थे. रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर. उस समय मुझे लगा की मैं यहाँ दो पल और रुका तो मैं या तो पागल हो जाऊंगा या फिर सिनेमा हॉल के कर्मचारी मेरी पिटाई कर देंगे, इसलिए मैं वहाँ से चला गया. अगले दिन हिंदी की परीक्षा थी इसलिए मैं हिंदी व्याकरण की किताब खरीदने किताबों के बाजार गया और वहाँ एक दूकान से किताब खरीदी.जब मैं दुकानदार को पैसे देकर पीछे मुड़ा ही था की मेरी नजर दूकान के नाम पर पडी मैं किताब को दुकानदार के मूह पर मारकर भागने लगा. मेरी इस हरकत से आश्चर्यचकित और गुस्साए 'रोहित बुक डिपो'  के उस दुकानदार से उस दिन मुझे "भैन्चो" के अलावा और भी गालियों के बारे में जानकारी मिली. 

उस दिन पहली बार घर पर मेरी जमकर पिटाई हुयी और इन सब का जिम्मेदार था "रोहित अग्रवाल 12C". मन ही मन उस समय मैंने रोहित अग्रवाल को बहुत गालियाँ दी और उस से बदला लेने की सोच ली. उस रात मैंने एक अजीब सपना देखा. सपने में मैं परीक्षा हॉल में बैठा था. और मेरे सामने हिंदी का प्रश्न पत्र था, मैं नौवे सवाल का उत्तर लिख रहा था, जिसमे "लेना" शब्द को क्रिया के रूप में वाक्य में प्रयोग करना था. मैंने इस सवाल के उत्तर में ये लिखा "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है ". मेरे ऐसा लिखने से मुझे स्कूल से निकाल दिया गया और निहारिका कक्कर को जब ये बात पता चली तो उसने मुझे एक थप्पड़ भी मारा और धमकी दी की रोहित अग्रवाल से कहकर वो मेरी टांगें तुडवा देगी. उसका इतना कहना ही मेरे लिए बिजली के करंट के सामान था, और इस करंट से मेरा सपना टूट गया. अगर निहारिका कक्कर ने सपने में मेरी रोहित अग्रवाल से तंग तुडवाने वाली बात ना कही होती तो शायद मेरा सपना कुछ देर और चलता और मैं अंत में रोहित अग्रवाल को मार डालता.

अगले दिन सुबह स्कूल जाते वक्त मैंने रास्ते में एक दूकान से एक परमानेंट मार्कर और एक नेलपोलिश रिमूवर की शीशी खरीदी और स्कूल की तरफ चल पड़ा. उस समय मैं अपने आप को हिंदी सिनेमा के उस नायक की तरह महसूस कर रहा था जो फिल्म के अंतिम सीन में, फिल्म के विलेन से बदला लेता है. उस दिन मैं जब स्कूल गया तो हर बार की तरह क्लास में ना जाकर मैं सीधे स्कूल के टॉयलेट में गया और जिस जगह पर "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है " लिखा था उस को पेर्मानेट मार्कर की मदद से काटा और फिर नेलपॉलिश रीमुवर से मिटा दिया. मैं थोड़ी देर वहीँ खडा रहा और फिर सोचा की मुझे रोहित अग्रवाल के बहन सीमा अग्रवाल के बारे में कुछ उलूल जुलूल लिख देना चाहिए पर फिर दिमाग में ये ख्याल आया की फिल्मो में हीरो किसी की माँ बहन के बारे में कुछ उलटा सीधा नहीं बोलते है या करते है चाहे वो विलेन की माँ बहन ही क्यूँ ना हो. मैं यह सोचकर टॉयलेट से बाहर चला आया. और क्लास की तरफ चलता बना. टॉयलेट और क्लास के बीच के रास्ते को तय करते समय मेरे जेहन में ये ख्याल आ रहे थे की क्या मेरा मकसद पूरा हो गया, क्या मेरा बदला पूरा हो गया? मेरे अंदर का कमजोर इंसान कहता की "हाँ अब बात यहीं खत्म हो जाये तो ठीक है, ऐसे भी मार पीट में क्या रक्खा है, इन छोटी छोटी बातों पर मार पीट हम जैसो लोगो को शोभा नहीं देती" लेकिन मेरे अंदर किसी कोने में बसे सुनील शेट्टी को यह मंजूर नहीं था, उसके हिसाब से अभी असली गुनाहगार का पता लगाना बाकी था, उस को उसके किये की सजा मिलनी बाकी थी.
मेरे मन के अंदर चल रहे इस युद्ध में जीत मेरे अंदर बसे कमजोर इंसान की ही हुयी. ये कहना सही रहेगा की मैंने जबरदस्ती अपने अंदर बसे कमजोर इंसान को जीताया, क्यूंकि मेरे दुबले पतले शरीर का रोहित अग्रवाल के लंबे चौड़े शरीर से कोई मुकाबला नहीं था, और मैं नहीं चाहता था की मुझे निहारिका कक्कर रोहित अग्रवाल से हारता हुआ देखे. इन्ही बातों पर विचार विमर्श करते करते मैं कब क्लास में चला आया पता ना चला. क्लास में घुसते ही मैं अपना सीट ढूँढने लगा, और तब मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मुझे पता चला की मेरे सीट के बगल में निहारिका कक्कर का सीट है. उस दिन निहारिका कक्कर मेकअप करके आये थी इसलिए और दिनों के मुकाबले ज्यादा खूबसूरत लग रही थी.मैं ही मन बहुत खुश हो रहा था और भगवान का शुक्रिया अदा कर रहा था. उस समय मुझे लग रहा था की अब सब कुछ ठीक हो गया और हर हिंदी फिल्म की तरह मेरी कहानी का भी अंत सुखान्त होगा.

उस दिन कहानी में ट्विस्ट तब आया जब मैंने देखा की निहारिका कक्कर प्रश्न सात (अ) के उत्तर में रोहित अग्रवाल का नाम लिख रही है. प्रश्न सात (अ) में आँखों का तारा नामक मुहावरे का वाक्य में प्रयोग करना था और जिसके उत्तर में निहारिका कक्कर ने लिखा रोहित अग्रवाल मेरी आँखों का तारा है”.........
ये पढ़ने के बाद मेरी कलम रुकी की रुकी रह गयी, मैंने निहारिका कक्कर को हिकारत भरी नजरो से देखते हुए दबी आवाज में एक भद्दी गाली दी, वो गाली बहुत ही प्रचलित गाली थी जो प्रायः लड़के उन लड़कियों को देते थे जो उनका दिल तोड़ देती थी या फिर जिनसे उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता था....
उस दिन मैंने अपना पेपर अधूरा ही छोड़ दिया और समय से पहले क्लास से बाहर आ गया. क्लास से बाहर निकलते समय मैंने दुबारा निहारिका कक्कर को देखा जो मेरे समय से पहले जाने के कारण आश्चर्यचकित  थी. मैं क्लास से निकल कर सीधा टॉयलेट की तरफ गया और पेशाब करने लगा. मैंने किसी फिल्म में परेश रावल को यह कहते सुना था की जब आदमी को गुस्सा आये तो उसे मूत लेना चाहिए, इस से गुस्सा शांत हो जाता है. पेशाब करने के बाद भी मेरा गुस्सा शांत नहीं हुआ और इसलिए मैंने परेश रावल को भी मन ही मन गाली दी.

उस दिन मैं बहुत दुखी और अपमानित सा महसूस कर रहा था, मैंने उस दिन मन ही मन ये भी कसम खाए की मैं अब से अपनी तुलना किसी हीरो के साथ नहीं करूँगा. रह रह मेरे दिमाग में निहारिका कक्कर की बाते गूँज रही थी.

मेरा होमवर्क बना दो ना, प्लीज क्या तुम मेरा अकाउंट्स का असायीन्मेंट बना दोगे” “तुम मेरे सबसे अछे दोस्त हो"

पहले मुझे लगता था की निहारिका कक्कर सिर्फ मुझ पर लाइन मारती है और मुझ पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करती है तभी तो वो हर काम में मुझे ढूंढती है और वो तो मुझे ही सबसे अच्छा दोस्त मानती  है. मैंने किसी फिल्म में नायक को यह कहते सुना थे की दोस्ती, प्यार की पहली सीढ़ी होती है. बस मैं यहीं धोखा खा गया.

उस दिन मुझे फिल्मों से भी नफरत हो गयी. और उस दिन मैंने यह कसम खाई की अब कभी भी अपने जीवन फ़िल्मी फोर्मुले नहीं अपनाऊंगा. यही सोचकर मैं टॉयलेट से बाहर निकल आया और घर की तरफ चलने लगा पर फिर पता नहीं मैं क्या सोचकर मैं दुबारा टॉयलेट में गया और जेब से परमानेंट मार्कर निकाल कर दिवार पर बड़े बड़े अक्षरों में लिख दिया हाँ, रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है"

समाप्त

 इस कहानी के सभी पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक है.

(C) ब्रजेश कुमार सिंह 'अराहान'

02.08.2012