गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

बदलाव

उनकी नजरो के जबसे हैं  शिकार बने
तबसे मर्ज-ए -मोहब्बत में हैं बीमार बने 
वो पलट के पूछते भी नहीं हाल हमारा 
हम ही मरीज और हम ही तीमारदार बने 
हंटर चला देती हैं हम पर इनके जैसी शोख हसीनाएं 
बेशर्म हम हैं जो इन जैसो के आशिक हर बार बने 
जबसे शौक़ चढ़ा है उनको रंगीन चुन्नियों का 
तबसे हम खुद में ही एक मीना बाजार बने 
मुस्कुराकर कभी जिसने हमको देखा भी नहीं 
हम  है की उनकी मुस्कराहट के तलबगार बने 
जबसे पिया है एक कतरा उनके शरबती आँखों का 
तबसे हम हैं आबशार बने 
रात दिन है आस की वो आएंगे करीब 
घर की चौखट पे खड़े खड़े हम चौकीदार बने 
सुनायी देती है कानो में जबसे उनके सांसो  की मौसीकी 
उनके सरगम में उलझे हम सितार बने 
छीनने लगी हैं वो छनकाके  पायल, करार हमारा 
उनकी कदमो की आहट  सुनकर हम बेकरार बने 
इश्क के अंजुमन में ऐसे हुए हम गिरफ्तार 
की काबिल से बेकार बने 
ऐसा लुटाया हमने उनपे अपना सबकुछ 
दुनिया की बात छोडिये हम खुद के है कर्जदार बने 
इतनी मोहब्बत , फिर भी हासिल कुछ नहीं 
हम  चाइनीज  सामानों के खरीदार बने 
"एकतरफा इश्क " शीर्षक से छपी एक कहानी 
हम कहानी के एक अहम् किरदार बने 
डूब गए गुमनामी के समंदर में 
इश्क में हम जो इतने वफादार बने 
वो बेखबर मेरे इश्क से, माशूका बन गयी किसी और की 
और हम देवदास के दिलीप कुमार बने 

अराहन 



वापसी

लौट जाना चाहता हूँ मैं फिर से उसी गली में 
जहाँ वर्षों से मेरे इन्तेजार में खड़ा है एक खंडहरनुमा घर
अपने खिडकियों में कुछ बेचैन आँखों को टाँके हुए
अपनी दरकती दीवारों में टूटने का सबब संभाले हुए
लौट जाना चाहता हूँ मैं फिर से उसी गली में
मैं लौट जाना चाहता हूँ फिर से उसी घर में
जिसके अहाते में चावल चुन रही एक बूढी औरत चौंकती है कौवों की कांव कांव पर
उसे अबी भी यकीन होगा इस कहावत पर की
"सुबह का भुला लौटता है शाम को"
और इसी लिए हर शाम दिया रख जाती होगी दरवाजे पर
मैं लौट जाना चाहता हूँ उसी घर में
जिसके कमरे में एक बूढा
अख़बार में ढूंढ रहा होगा गुमशुदा लोगों की फेहरिस्त में किसी का नाम
और खुद को दे रहा होगा तसल्ली की
दुनिया के किसी कोने में जल ही रहा होगा उसके घर का चिराग

अराहान 

आजादी

हमलोग जेल की दीवारों पर
लिखते रहे खून से  आजादी की कवितायेँ 
जेल के रोशनदान से भेजते रहे 
आजाद हवाओ को प्रेमपत्र 
हाथो में जडी लोहे की बेड़ियों से भी की हमने 
अपने आजाद दिनों की बाते 
दीवाल पर रेंगती छिपकलियों को भी हमने बताया 
की 6X 8 के इस तंग कमरे में भी ढूंढा जा सकता है एक आजाद कोना 
एक अपना कोना जहाँ हम गुलाम होते हुए भी जाता सकते हैं अपना स्वमित्व 
जी सकते हैं एक बादशाह की तरह इस काल कोठरी में 
हम लोगो बीस साल जेल में कैद नहीं थे 
यूँ कहें तो हम लोगो ने जिया था उन बीस सालो को 
एक आजाद पंछी की तरह 

अराहान 

26 दिसंबर 2012 

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

मेरे रात का एक हिस्सा


कभी तुम चुपके से चुरा लेना
मेरी रात का एक टुकडा
और सो जाना मेरे रात के हिस्से में
तुम्हे पता चलेगा की
चाँद के लाख चमकने के बावजूद भी
मेरी रातें कितनी अँधेरी हैं
चैनो सुकून के सारे साजो सामान के बावजूद भी
कितनी बेचैनी है मेरे रातों में
तुम्हे पता चलेगा की
क्यों मेरी चुप्पी
जलती है मेरी डायरी में
क्यूँ तुम्हारी बाते आते है मेरे शायरी में
क्यूँ मेरी रातों का कोई सवेरा नहीं होता
क्यूँ मेरे ख्वाबों के परिंदों का
कोई बसेरा नहीं होता
क्यूँ मेरे खयालो में तेरा नाम बसता है
क्यूँ हिज्र की आग में मेरा दिल जलता है
कभी तुम चुपके से चुरा लेना
मेरे रात का एक टुकडा
और सो जाना मेरे रात के हिस्से में
तुम्हे पता चलेगा की
तुम्हारे प्रति मेरा पागलपन कितना जायज और लाजिमी है
कितना बेसब्र है मेरे रात का हर एक पल
तुम्हारे बाजुओं में बीतने के लिए

ब्रजेश कुमार सिंह "अरहान"

सृजन


मुझे नहीं पता है भौतिकी के सिद्धांतो के बारे में 
ना ही मुझे विज्ञान की थोड़ी सी भी समझ है 
ना ही मैं न्यूटन हूँ 
ना ही आइंस्टीन फिर
पर फिर भी  मैं 
अपने छोटे से तंग अँधेरे कमरे में 
तुम्हारे जुल्फों से रात बना सकता हूँ 
तुम्हारे चेहरे से चाँद बना सकता हूँ 
तुम्हारी बड़ी बड़ी आँखों से 
टिमटिमाते सितारे बना सकता हूँ 
तुम्हारे सुर्ख गुलाबी होठों से 
फूल बना सकता हूँ 
है मुझमे इतनी काबिलियत की मैं तुम्हारे स्पर्श से 
एक नया संसार बना सकता हूँ 

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान" 




सोमवार, 13 अगस्त 2012

कोई था

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कोई था जो हमारी शामें गुलजार किया करता था 
कोई था जो दरिया किनारे हमारा इंतज़ार किया करता था 
कोई था जो हम पे अपनी जान भी निसार करता था 
कोई था जो हम से भी प्यार करता था 

कोई था जिसके आने से ख़ुशी लौट आती थी 
कोई था जिसके जाने से आँखें नम हो जाती थी
कोई था जिसका तस्सव्वुर में आना जाना था 
कोई था जिसका ये दिल भी दीवाना था 
कोई था जो छिप चीप के हमारा दीदार किया करता था
कोई था जो हमारी सलामती के लिए अपनी खुशियाँ दरकिनार करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जिसका थाम के हाथ हम हर सीढ़ी चढ़ लेते थे
कोई था जिसकी आँखो में हम हर बात पढ़ लेते थें
कोई था जिसके लिए धड़कता था हमारा दिल भी
कोई था जो था हमारा रास्ता भी मंजिल भी
कोई था जो नजरो से हमारे दिल पे वार करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जो दिया बन जाता था अँधेरे में
कोई था संग हमारे हर शाम हर सवेरे में
कोई था संग हमारे सावन की घटा, वसंत की पुरवाई में
कोई था संग हम में हमारी परछाई में
कोई था जो हमको 'दूरियो से दूर बार बार किया करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जिसने संग हमारे खुशियो के बीज बोये थे
कोई था जिसने हमसे जाने कितने सपने संजोये थे
कोई था जिसने हमसे लाल जोड़े की, की अर्जी थी
पर सफ़ेद कफन था उसके नसीब में भगवान् की यही मर्जी थी
कोई था जिसके लिए हम पहली बार टूटे थे
बंद भीतर, दिल के जज्बात आँखों से टूटे थे
कोई था जो हमारे आंसूओं का ऐतबार किया करता था
कोई था जो हमसे भी प्यार करता था

कोई था जिसको ये दिल हर वक़्त याद किया करता है
गम भूलाने के लिए मयखाने आबाद करता है
वो जब भी हमें तनहा पाती हैं
हवाओं के संग पता नहीं कब चली आती है
बादलो और हवाओं में उसके अक्स का ये दिल दीदार करता है
कोई था जिसको ये दिल भी प्यार करता है

अराहान

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

वो लोग जो असफल होते हैं प्रेम में

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वो लोग जो असफल होते हैं प्रेम में 
अकसर कवितायेँ लिखा करते हैं 
रेत पर घरौंदे बनाते हैं 
तितलियों का पीछा करते हैं 
ओंस इ बूंदों ओ पिने की कोशिश करते हैं 
तारे गिना करते हैं 
समुन्दर की लहरों पर कागज़ के नाव तैराया करते हैं 
सुनसान पर टहला करते हैं 
मातम मानते हैं 
दर्द भरे नगमे गाते हैं 
बेवफाई की कहानियाँ पढते हैं 
और इन सब से थकने के बाद 
वे फिर से प्रेम करते हैं 
और असफल हो जाते हैं 

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान"
10 Aug 2012 

रविवार, 5 अगस्त 2012

मेहरुन्निसा क्या वो तुम हो

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मेहरुन्निसा क्या वो तुम हो
चाँद पर बैठी
चरखा कातती हुयी
मेहरुन्निसा क्या वो तुम्ही हो
जो लटका देती है ख्वाबों के रंग का एक पतला सूत
मेरे छत पर
और शायद इन्तजार करती हो मेरा
उसपर लटककर ऊपर आने का
अगर वो तुम्ही हो तो
भेजो कोई मोटी रस्सी
वो सूत का पतला धागा नहीं उठा सकता मेरा वजन
चौंको नहीं, मैं पहले की तरह ही दुबला पतला हूँ '
पर मेरा वजन बढ़ चुका है
मेरी दिल के कोठरियों में दबी उन अनकही बातो के भार से
जिन्हें मैं तुम्हे अक्सर बताने की कोशिश करता था पर बता ना सका
जिन्हें तुम सुन लेती तो,
 यूँ नजर ना आती चाँद पर चरखों से खामोशियों के धागे  कातते हुए
आसमान से नहीं टपकती तुम्हारे रोने की गीली आवाज
मेहरुन्निसा फ़ेंक दो जल्दी से कोई मोटी सी रस्सी
मैं ऊपर आकर तुम्हारे स्पर्श के गुरुत्वाकर्षण से
कम करना चाहता हूँ अपना वजन
बता देना चाहता हूँ वो सब
जिस से तुम अबतक अनजान हो
मेहरुन्निसा मैं तुमसे तबसे मोहब्बत करता हूँ
जब तुम एक कैटरपिलर हुआ करती थी
और मैं उलझा हुआ रहता था तुम्हारे रेशमी धागों में
तुम देखती थी हमेशा मुझे अपने मुस्कराहट की दूरबीन से
और मैं झेंपता था सुलझने की हर नाकामयाब कोशिश पर
मैं उलझा हे रहा उन रेशमी धागों में और
नजाने कब तुम तितली बन कर उड़ गयी
मुझे पता ना चला
तुम्हारे जाने के बाद मैं तुम्हे ढूँढता रहा
जब भी दिखाई देती कोई तितली
मैं पीछा करता उसका
और इसी कोशिश में  मैं कितनी बार गुमशुदा हो चुका हूँ
मुझे अब भी पता नहीं की कहाँ हूँ मैं
पर जहां भी हूँ मैं
वहाँ एक चाँद है
जिस पर तुम बैठी हो
चरखे से  सूत कातती हुयी
और शायद सुन रही हो मेरी बातें ध्यान से
मेहरूनिसा अगर तुम सुन चुकी हो सबकुछ
तो मेरी एक ख्वाहिश पूरी करना
मैं कल एक बेदाग़ चाँद देखना चाहता हूँ

अराहान
4 Aug 2012








शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

खिड़कियों से झाँककर देखे गए सपने


खिड़कियों से झाँककर देखे गए सपने
सपने नहीं होते
ये हकीकत का ही हिस्सा होते है
इन सपनो में नहीं दिखाई देती है खूबसुरत परियां  
ना ही कोई उड़ने वाला घोड़ा दिखाई देता है
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपनों में
एक नाला होता है
एक गंदा सा, रुका सा नाला
जिसके किनारे बैठ के रोता है एक छोटा बच्चा
शायद इसलिए क्यूंकि खो चुका होता है उस बच्चे के एक सिक्का
और उस एक सिक्के के खोने से खो जाती है उस बच्चे की खुशियाँ
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपनों में
दिखाई देता है एक बुढा बरगद का पेड़
जिस पर एक गौरय्ये का जोड़ा बना रहा होता है एक घोसला
तिनका तिनका चुनकर लाते इन परिंदों को गुस्सा नहीं आता है तुफानो पर
टूटता नहीं है इनका हौसला
भले ही टूट जाता है हर बार इनका घोसला
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपनों में
दिखाई देती है एक जद्दोहद
एक तड़प
एक दर्द
एक आकांक्षा
इन सपनो में दिखाए देने वाला रुका हुआ नाला भी इशारा करता है चलते रहने का
उस बच्चे के आंसू भी देते हैं हिदायत हमेशा हँसते रहो
टूटते घोसले भी सिखाते हैं संवरने का हुनर
खिड़कियों से झांककर दखे गए सपने,
सपने नहीं होते
ये होते हैं हमारे हकीकत का हिस्सा
जिसे हम आमतौर पर जिंदगी कहते हैं

ब्रजेश कुमार सिंह  अराहान”
3.08.2012



गुरुवार, 2 अगस्त 2012

"रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है "

"रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है"
स्कूल के टॉयलेट के दीवारों पर परमानेंट मार्कर की सहायता से बेरहमी से उकेरे गए ये शब्द मेरे जीवन के सबसे घिनौने, डरावने और खतरनाक शब्दों में से एक थे. उस दिन मैं क्लास में बहुत शांत रहा. रोज की तरह आज मैंने अकाउंट्स के टीचर की पतली आवाज की नक़ल नहीं उतारी और नाही निहारिका की तरफ मुड़कर देखा, उस दिन मैं घर लौटते वक्त रोज की तरह 'निहारिका गेम पार्लर" में जाकर जी.टी.ए वाईस सिटी भी नहीं खेला, आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था की मैं उस दूकान में न गया हो, मुझे गेम से ज्यादा लगाव गेम पार्लर के नाम से था. वो दिन बहुत भारी सा बीता. हर वक्त दिमाग में वही शब्द, किसी कर्कश आवाज की तरह शोर मचा रहे थे. धीरे धीरे ये शब्द दृश्यों में बदलने लगें.
उस दिन हर चैनल पर एक ही बात फ्लैश कर रही थी "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है"
मैं चैनल पर चैनल बदलता जा रहा था पर दिमाग पर रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर ही सवार थे


*(नहीं, निहारिका कक्कर रोहित अग्रवाल पर सवार थी)


उस दिन के बाद से मैंने कभी टी.वी नहीं देखी, शायद इसलिए क्यूंकि मैंने उस दिन घर में मौजूद एकलौती टी.वी को तोड़ दिया था या फिर इसलिए की मुझे हर चैनल पर रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर ही दिखाई दे रहे थे.
उस दिन मैंने ४ साल के टिंकू को सिर्फ इसलिए एक थप्पड़ मार दिया क्यूंकि वो मुझसे फाईव स्टार खिलाने की जिद कर रहा था. यूँ मुझे बच्चे हद से ज्यादा पसंद है और इसी वजह से आस पड़ोस के बच्चे भी मुझमे जादा रूचि रखते हैं पर उस दिन ना जाने क्यूँ मैंने उस बच्चे को एक थप्पड़ मारा, शायद इसलिए क्यूंकि उसका नाम टिंकू उर्फ तिलक अग्रवाल था.

उस दिन इस घटना के बाद मुझे लगा की मैं एक बुरा इंसान बन चूका हूँ. मेरे जेहन में बुरे इंसान की जो छवि थी उसके अनुसार बुरा आदमी बनने के लिए शराब पीना, लंबी दाढ़ी रखना और गाली देना अनिवार्य था. उस समय मैं सिर्फ 16 का था, और मेरे चेहरे पर दाढ़ी के नाम पर सिर्फ कुछ रेशमी बाल ही उगे थे. उस दिन मैंने पूरी तरह से बुरा आदमी बनने के लिए सबसे पहले पापा की शेविंग किट चुराकर शेविंग की, मैंने कहीं सुन रक्खा था की शेविंग करने से जल्दी दाढ़ी आती है और फिर पापा के ही वैलेट से पैसे चुराए और शराब पी. उस दिन मैंने बेवजह अपने मकान मालिक को "भैन्चो" कहा.

*(बेवजह नहीं
, मुझे बुरा आदमी बनना था और उसके लिए गाली देना जरूरी था) 

उस दिन मैं सड़कों पर बेतहाशा घूमता रहा. उस दिन ऐसा पहली बार हुआ जब मैं रात के सात बजे घर में ना होकर घर से बाहर  8 किलोमीटर दूर श्याम टाकीज के सामने वाली सड़क पर आवारागर्दी कर रहा था. उस दिन मैं अपने आप को किसी आर्ट फिल्म के नायक की तरह समझ रहा था और मुझे एकबारगी ये लगा की मैं आज जो कुछ भी कर रहा हूँ हकीकत में नहीं कर रहा बल्कि किसी फिल्म की शूटिंग कर रहा हूँ. मैं उस समय यह सोच रहा था की एक 11A की लड़की का एक 12C के लड़के से क्या लेना देना हो सकता है. और आज जिसने भी टॉयलेट के दीवार पर निहारिका कक्कर के बारे में जो कुछ लिखा है वो बदले की भावना से लिखा होगा, ये भी सकता है की उस लड़के ने निहारिका कक्कर को प्रोपोज किया हो और उसके ठुकराने पर लड़के ने अपना गुस्सा टॉयलेट के दीवार पर निहारिका के बारे में उलूल जुलूल लिखकर उतारा हो. मैं यह सोचकर थोड़ा आस्वश्त हुआ ही था की मन में एक और ख्याल आया की उस लड़के ने रोहित अग्रवाल का ही नाम क्यूँ लिखा? ये सवाल मेरे जेहन में एक जिद्दी जोंक की तरह चिपक गया. मुझे लगा की आज मुझे किसी आर्ट फिल्म के नायक की बजाये किसी जासूसी फिल्म के नायक की तरह सोचना चाहिए और जल्द से जल्द मुझे इस टॉयलेट वाली घटना के तह तक पहुंचना चाहिए. टॉयलेट वाली घटना के नाम से मुझे याद आया की मुझे जोर की पेशाब लगी है इसलिए श्याम टाकीज के पीछे वाली दीवार के सामने पेशाब करने लगा. उस दीवार पर साफ़ अक्षरों में लिखा था "देखो, गधा मुत रहा है" पर ना जाने मुझे ऐसा क्यूँ लगा की यहाँ भी किसी ने लिख दिया है की "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है ". मैं उस समय अपने पेशाब से उस दीवार पर लिखे इस घिनौने वाक्य को मिटाने की कोशिश करने लगा पर मैं सफल न हो सका. उस दिन मैंने गुस्से में आकर श्याम टाकीज के आसपास जितने भी (A) सर्टिफिकेट वाले फिल्मों के पोस्टर थे फाड़ डाले. "अकेली रात" से लेकर "मचलती हसीना" तक जितने भी फिल्म के पोस्टर थे उनमे मुझे दो ही लोग दिखाई दे रहे थे. रोहित अग्रवाल और निहारिका कक्कर. उस समय मुझे लगा की मैं यहाँ दो पल और रुका तो मैं या तो पागल हो जाऊंगा या फिर सिनेमा हॉल के कर्मचारी मेरी पिटाई कर देंगे, इसलिए मैं वहाँ से चला गया. अगले दिन हिंदी की परीक्षा थी इसलिए मैं हिंदी व्याकरण की किताब खरीदने किताबों के बाजार गया और वहाँ एक दूकान से किताब खरीदी.जब मैं दुकानदार को पैसे देकर पीछे मुड़ा ही था की मेरी नजर दूकान के नाम पर पडी मैं किताब को दुकानदार के मूह पर मारकर भागने लगा. मेरी इस हरकत से आश्चर्यचकित और गुस्साए 'रोहित बुक डिपो'  के उस दुकानदार से उस दिन मुझे "भैन्चो" के अलावा और भी गालियों के बारे में जानकारी मिली. 

उस दिन पहली बार घर पर मेरी जमकर पिटाई हुयी और इन सब का जिम्मेदार था "रोहित अग्रवाल 12C". मन ही मन उस समय मैंने रोहित अग्रवाल को बहुत गालियाँ दी और उस से बदला लेने की सोच ली. उस रात मैंने एक अजीब सपना देखा. सपने में मैं परीक्षा हॉल में बैठा था. और मेरे सामने हिंदी का प्रश्न पत्र था, मैं नौवे सवाल का उत्तर लिख रहा था, जिसमे "लेना" शब्द को क्रिया के रूप में वाक्य में प्रयोग करना था. मैंने इस सवाल के उत्तर में ये लिखा "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है ". मेरे ऐसा लिखने से मुझे स्कूल से निकाल दिया गया और निहारिका कक्कर को जब ये बात पता चली तो उसने मुझे एक थप्पड़ भी मारा और धमकी दी की रोहित अग्रवाल से कहकर वो मेरी टांगें तुडवा देगी. उसका इतना कहना ही मेरे लिए बिजली के करंट के सामान था, और इस करंट से मेरा सपना टूट गया. अगर निहारिका कक्कर ने सपने में मेरी रोहित अग्रवाल से तंग तुडवाने वाली बात ना कही होती तो शायद मेरा सपना कुछ देर और चलता और मैं अंत में रोहित अग्रवाल को मार डालता.

अगले दिन सुबह स्कूल जाते वक्त मैंने रास्ते में एक दूकान से एक परमानेंट मार्कर और एक नेलपोलिश रिमूवर की शीशी खरीदी और स्कूल की तरफ चल पड़ा. उस समय मैं अपने आप को हिंदी सिनेमा के उस नायक की तरह महसूस कर रहा था जो फिल्म के अंतिम सीन में, फिल्म के विलेन से बदला लेता है. उस दिन मैं जब स्कूल गया तो हर बार की तरह क्लास में ना जाकर मैं सीधे स्कूल के टॉयलेट में गया और जिस जगह पर "रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है " लिखा था उस को पेर्मानेट मार्कर की मदद से काटा और फिर नेलपॉलिश रीमुवर से मिटा दिया. मैं थोड़ी देर वहीँ खडा रहा और फिर सोचा की मुझे रोहित अग्रवाल के बहन सीमा अग्रवाल के बारे में कुछ उलूल जुलूल लिख देना चाहिए पर फिर दिमाग में ये ख्याल आया की फिल्मो में हीरो किसी की माँ बहन के बारे में कुछ उलटा सीधा नहीं बोलते है या करते है चाहे वो विलेन की माँ बहन ही क्यूँ ना हो. मैं यह सोचकर टॉयलेट से बाहर चला आया. और क्लास की तरफ चलता बना. टॉयलेट और क्लास के बीच के रास्ते को तय करते समय मेरे जेहन में ये ख्याल आ रहे थे की क्या मेरा मकसद पूरा हो गया, क्या मेरा बदला पूरा हो गया? मेरे अंदर का कमजोर इंसान कहता की "हाँ अब बात यहीं खत्म हो जाये तो ठीक है, ऐसे भी मार पीट में क्या रक्खा है, इन छोटी छोटी बातों पर मार पीट हम जैसो लोगो को शोभा नहीं देती" लेकिन मेरे अंदर किसी कोने में बसे सुनील शेट्टी को यह मंजूर नहीं था, उसके हिसाब से अभी असली गुनाहगार का पता लगाना बाकी था, उस को उसके किये की सजा मिलनी बाकी थी.
मेरे मन के अंदर चल रहे इस युद्ध में जीत मेरे अंदर बसे कमजोर इंसान की ही हुयी. ये कहना सही रहेगा की मैंने जबरदस्ती अपने अंदर बसे कमजोर इंसान को जीताया, क्यूंकि मेरे दुबले पतले शरीर का रोहित अग्रवाल के लंबे चौड़े शरीर से कोई मुकाबला नहीं था, और मैं नहीं चाहता था की मुझे निहारिका कक्कर रोहित अग्रवाल से हारता हुआ देखे. इन्ही बातों पर विचार विमर्श करते करते मैं कब क्लास में चला आया पता ना चला. क्लास में घुसते ही मैं अपना सीट ढूँढने लगा, और तब मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मुझे पता चला की मेरे सीट के बगल में निहारिका कक्कर का सीट है. उस दिन निहारिका कक्कर मेकअप करके आये थी इसलिए और दिनों के मुकाबले ज्यादा खूबसूरत लग रही थी.मैं ही मन बहुत खुश हो रहा था और भगवान का शुक्रिया अदा कर रहा था. उस समय मुझे लग रहा था की अब सब कुछ ठीक हो गया और हर हिंदी फिल्म की तरह मेरी कहानी का भी अंत सुखान्त होगा.

उस दिन कहानी में ट्विस्ट तब आया जब मैंने देखा की निहारिका कक्कर प्रश्न सात (अ) के उत्तर में रोहित अग्रवाल का नाम लिख रही है. प्रश्न सात (अ) में आँखों का तारा नामक मुहावरे का वाक्य में प्रयोग करना था और जिसके उत्तर में निहारिका कक्कर ने लिखा रोहित अग्रवाल मेरी आँखों का तारा है”.........
ये पढ़ने के बाद मेरी कलम रुकी की रुकी रह गयी, मैंने निहारिका कक्कर को हिकारत भरी नजरो से देखते हुए दबी आवाज में एक भद्दी गाली दी, वो गाली बहुत ही प्रचलित गाली थी जो प्रायः लड़के उन लड़कियों को देते थे जो उनका दिल तोड़ देती थी या फिर जिनसे उनका सम्बन्ध विच्छेद हो जाता था....
उस दिन मैंने अपना पेपर अधूरा ही छोड़ दिया और समय से पहले क्लास से बाहर आ गया. क्लास से बाहर निकलते समय मैंने दुबारा निहारिका कक्कर को देखा जो मेरे समय से पहले जाने के कारण आश्चर्यचकित  थी. मैं क्लास से निकल कर सीधा टॉयलेट की तरफ गया और पेशाब करने लगा. मैंने किसी फिल्म में परेश रावल को यह कहते सुना था की जब आदमी को गुस्सा आये तो उसे मूत लेना चाहिए, इस से गुस्सा शांत हो जाता है. पेशाब करने के बाद भी मेरा गुस्सा शांत नहीं हुआ और इसलिए मैंने परेश रावल को भी मन ही मन गाली दी.

उस दिन मैं बहुत दुखी और अपमानित सा महसूस कर रहा था, मैंने उस दिन मन ही मन ये भी कसम खाए की मैं अब से अपनी तुलना किसी हीरो के साथ नहीं करूँगा. रह रह मेरे दिमाग में निहारिका कक्कर की बाते गूँज रही थी.

मेरा होमवर्क बना दो ना, प्लीज क्या तुम मेरा अकाउंट्स का असायीन्मेंट बना दोगे” “तुम मेरे सबसे अछे दोस्त हो"

पहले मुझे लगता था की निहारिका कक्कर सिर्फ मुझ पर लाइन मारती है और मुझ पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करती है तभी तो वो हर काम में मुझे ढूंढती है और वो तो मुझे ही सबसे अच्छा दोस्त मानती  है. मैंने किसी फिल्म में नायक को यह कहते सुना थे की दोस्ती, प्यार की पहली सीढ़ी होती है. बस मैं यहीं धोखा खा गया.

उस दिन मुझे फिल्मों से भी नफरत हो गयी. और उस दिन मैंने यह कसम खाई की अब कभी भी अपने जीवन फ़िल्मी फोर्मुले नहीं अपनाऊंगा. यही सोचकर मैं टॉयलेट से बाहर निकल आया और घर की तरफ चलने लगा पर फिर पता नहीं मैं क्या सोचकर मैं दुबारा टॉयलेट में गया और जेब से परमानेंट मार्कर निकाल कर दिवार पर बड़े बड़े अक्षरों में लिख दिया हाँ, रोहित अग्रवाल (12C), निहारिका कक्कर (11A) की लेता है"

समाप्त

 इस कहानी के सभी पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक है.

(C) ब्रजेश कुमार सिंह 'अराहान'

02.08.2012

बुधवार, 25 जुलाई 2012

डर

मुझे अब मूंगफली खाने से डर लगता है 
मुझे अब गोलगप्पे खाने से डर लगता है 
मुझे अब श्याम टाकीज के नाम से भी डर लगता है 
मुझे अपने शहर के हर उस जगह से 
हर उस चीज से डर लगता है 
जिस से तुम जुड़ी हो 
मैं जुड़ा हूँ 
मुझे डर लगता है अब शादी के कार्ड से 
डर लगने लगता है मैं जब भी कहीं पढता हूँ श्री गणेशाय नम: 
अंदर खरोंच सी उठती है 
डर लगता है अब मैं जब भी देखता हूँ किसी लड़की को लाईब्रेरी से निकलते हुए
डर बढ़ जाता है जब उसके हाथों में देखता हूँ एरिक सीगल की लव स्टोरी वाली किताब
मुझे याद हम कुछ इस तरह ही मिले थे कभी
मेरे पास अब भी सहेज कर रक्खी हुयी है ये किताब
मुझे याद है की कैसे इस छोटे शहर में फल फूल रहा था हमारा प्यार
ना कोई काफी शॉप, ना कोई मॉल था यहाँ
पर हम मिल लेते थे हमेशा
कभी मूंगफली के ठेले के पास
कभी गोलगप्पे के खोमचे पर
कभी श्याम टाकीज के सबसे कोने वाले सीट पर
पर उस दिन न जाने क्यूँ तुमने मुझे बुलाया
शहर से दूर उस टूटे हुए पूल पर
जो मशहूर था शहर के हारे प्रेमियों के बीच
एक आत्महत्या करने के सबसे सुन्दर जगह के रूप में
मैं आया था उस पूल पर उस दिन
तुम भी आयी थी
हालाँकि ना तुम कुदी उस पूल से
ना मैं कुदा
लेकिन एक हत्या हुयी उस दिन
जब तुमने थमाया मुझे अपने शादी का कार्ड
कितने सुनहरे अक्षरों में लिखा था
तुम्हारा और उसका नाम
ये पढ़ने के बाद मेरे आँखों के सामने तैरने लगे
क्लास्स के डेस्क पर खुरच कर लिखे गए सारे "रवि लब्स रागिनी"
और धीरे धूमिल होते गया उसमे से "रवि"
और फिर पसरी रही देर तक खामोशियाँ
जिसे अहिस्ता आहिस्ता तोड़ने की कोशिश करती रही नीचे कलकल करती हुयी नदी
ख़ामोशी टूटी
तुम्हारे रोने के साथ
मेरा कुछ छूटा उस दिन तुम्हे खोने के बाद
तुम चली गयी पूल के उस तरफ
मैं चला गया पुल के उस तरफ
पर अब तक लटकी हुयी है उस पूल पर
मेरी तुम्हारी
अधूरी कहानी

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान"

२५.०७.२०१२

रविवार, 15 जुलाई 2012

मेरी कवितायें

मैं यूँ ही लिख देता हूँ कवितायें 
उड़ेल देता हूँ अपने अंदर के द्वंद को 
छोड़ देता हूँ शब्दों को तैरने के लिए 
अपने अंतर्मन के अथाह समंदर में 
मेरे लिखे हर शब्द, हर वाक्य में छिपी होती हैं, 
मेरी भावनाएं, मेरी पीडाएं, मेरी इच्छाएं 
जो खुद चुनना चाहती हैं अपना लक्ष्य 
कहना चाहती हैं मेरे अंदर का सच 
लोग पढते हैं मेरी कविताओं को 
और फिर मुझे देखते हैं, बड़े रहस्यमयी तरीके से 
जैसे की मैं कोई पहेली हूँ
वो मेरे चेहरे पर भी पढ़ना चाहते हैं वो भाव
जो मेरी कविताओं में व्यक्त होता है
लेकिन माथे पर नहीं होती है मेरे कोई शिकन
चेहरे पर नहीं कोई उदासी, कोई विरक्ति
जो मेरी कविताओं में दिखाई देती है
इसलिए लोग घूरते मुझे बड़े देर तक
टटोलते हैं मेरी अंदर की भावनाओ को
जानना चाहते है मेरी कमजोरियों को
कोशिश करने लगते है वो मेरी दुखती रगों पर हाथ रखने की
और मैं अछूता नहीं रह पाता उनकी इन भेदती नजरों से
पकडे जाने लगता है मेरे अंदर का सच
मेरी कविताओं का सच
मेरे जीवन का सच
और डर बढ़ जाता है मेरी भावनाओ के उजागर होने का
सामने आने लगता है रहस्य मेरी कविताओं का
और तब मैं यह कहकर बचने की कोशिश करता हूँ
"की ये कवितायेँ मैंने नहीं लिखी, कहीं से चुराई है"

ब्रजेश कुमार सिंह 'अराहान' 



१८ मार्च २०१२ 

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

तितली

एक तितली देखी गयी, एक रोज उस बेरंग शहर में
एक सफ़ेद फूल पर मंडराते हुए
आश्चर्य से फटी रह गयी आँखें उस शख्स की जिसने देखा उस तितली को
अब तक रंग नाम की चीज से अनिभिज्ञ थे उस शहर के लोग
इसीलिए हजम नहीं कर पा रही थी उनकी आँखे तितली के रंग बिरंगे यौवन को
हर कोई हो रहा था बेचैन उस तितली को छूने को
हर किसी को रंगना था खुद की जिंदगी को
बिछाए जाने लगे जाल
सैकड़ों  हाथ तैयार होने लगे झपटने के लिए
सब को थी जल्दी
रंगने की
लाल हरे रंगों में ढलने की
और रंगने की सी जिद में
क़त्ल कर दी गयी वो तितली
बाँटे जाने लगे उसके रंग सबके चीज
पर हो ना पाया कोई रंगीन
सब ज्यों के त्यों बने रहे श्वेत श्याम
बस उनके हाथ रंगे रहे तितली के लाल खून से

ब्रजेश कुमार सिंह

०६-०७-२०१२  

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

छोटे शहरों मे प्यार


छिप छिपाकर होता है जवां प्यार छोटे शहरों मे
किसी गुमनाम गली के अँधेरे कोने में
यहाँ अक्सर कान खोल कर खड़ी होती है दीवारें
इसलिए खामोशियाँ में सब कुछ बयाँ करना होता है
शुरू होते है खतों के सिलसिले
तमन्नाये लेती है अंगडाई कागजों में
लगने लगता है सब कुछ अद्भुत अनोखा सा
बीतने लगता है वक्त
ख्वाबों के स्वेटर बुनने में
इस तरह से जन्म लेता है एक प्यार का पौधा
समाज के आँगन में
हर सच और हर झूठ से अनजान
एक पवित्र और मासूम सा प्यार
जो होता है मशगूल खुद में
इस बात से होता है अनजान की दुनिया को भनक लग गयी है इसकी
मंडराने लगे है संस्कृति और सभ्यता के भौरें उसके इर्द गिर्द
फूल खिलने से पहले ही कहीं तेज होने लगा है नियम कानून का उस्तरा
और बढ़ रहा है इस नए प्यार के तरफ

ब्रजेश कुमार सिंह

रविवार, 1 जुलाई 2012

कमल के फूल

देखो, खिलें हैं कमाल  के फूल
इस गंदे तालाब में
ये हमें बताना चाहते हैं
की इनकी जिद के आगे टिक नहीं पाया
इस तालाब का गंदा पानी
फीकी ना कर सकी इनकी गुलाबी रंगत
किनारों की ये मटमैली मिटटी
फर्क ना पड़ा इनकी सुगंध को
मरी हुयी मछलियों की बू से
बाँध ना सकी इनको
यहाँ वहाँ उग आईए जल्कुम्भियों की लताएँ
देखो ये बता रहे हैं की वे जी सकते हैं एक जिंदगी
इस मृतप्राय तालाब में भी
तमाम उलझनों और रुकावटों का सामना करते हुए
बिना किसी परेशानी और दिक्कत के

तो चलो अब तुम भी उतार फेंको अपने सर से
ये मटमैली चादर डर की
उखाड फेंको जड़ से
रिवाजों और समाजों की इन लताओं को
जो लिपटी हुयी है तुमसे
साँसों में भर लो मुट्ठी भर सुगंध इस नीले आसमान की
और चली आओ मेरे पास
हमें अब खिलना है इस कमाल की तरह
इस दलदल में

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान"

२९ मई २०१२ 

ये जरूरी नहीं

ये जरूरी नहीं की हर इंसान करे एक शख्स से ही प्यार
ये भी मुमकिन है की हम एक बार में पड़ें,
एक से ज्यादा लोगों के प्यार में
बराबर करें प्यार अपनी सभी प्रेमिकाओं को
निभाएं उनके वादें
बिना किसी को रुलाये
बिना किसी को दुःख पहुंचाए
बाँटें सभी को अपना वक्त बराबर हिस्सों में
गलत नहीं है कुछ इसमें
अगर हम गौर करें इस बात पर
खुले दिमाग से, ईमानदार होकर
ऊँची कर लें अपनी सोच
और विश्लेषण करें इस बात का
परम्पराओं को ताक पर रखते हुए
हम पायेंगे की कुछ गलत नहीं है इसमें
कोई घटियापन नहीं है
कोई कुंठा नहीं है इसके पीछे
ये एक सच्चाई है जो इस बात से वास्ता रखती है की
"प्यार बांटने से बढता है"

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान"

३० जून २०१२


शनिवार, 12 मई 2012

बचा के रखना ऐ खुदा मेरे लिए एक जगह

मेरे मरने के बाद 
बचा के रखना ऐ खुदा मेरे लिए एक जगह 
स्वर्ग में,  नर्क में या जहां कहीं भी मुमकिन हो सके तुमसे 
बचा कर रखना मेरे लिए एक जगह 
मैं मरने के बाद फिर से भटकना नहीं चाहता 
मैं नहीं चाहता की फिर से थके मेरी आँखें उनकी तलाश में 
ठोकर खाकर गिरुं मैं उनकी गली में 
मैं नहीं चाहता की फिर से देखें मेरी आँखें उनकी बेबसी 
और दुनिया लगाये कहकहे हमारी बर्बादी पर 
मैं नहीं चाहता की,
बेघर होने का अहसास कराये, मुझे मेरा ही घर 
और लगने लगे हर कमरा अनजाना सा 
मैं नहीं चाहता की मुझे बुलाये मेरे ही घर की चौखट अजनबी कहकर 
और मैं निकल पडूं घर की तलाश में 
दो जोड़े सपने बांधकर 
मैं नहीं चाहता की मैं यूँ ही भटकता फिरूं आशियाने की तलाश में 
और मायूस होता रहूँ दरवाजों पर ताला देखकर 
अब रुकना चाहता हूँ 
मैं अब ठहरना चाहता हूँ 

मेरे मरने के बाद 
बचा के रखना ऐ खुदा मेरे लिए एक जगह 
मैं मरने के बाद भी जागना नहीं चाहता 
मैं नहीं चाहता की फिर से कटे मेरी रातें करवटों में 
और वो तांक जाएँ एक सपना 
मेरे चादर की सिलवटों में 
मैं नहीं चाहता की उनकी आहट खलल डाले मेरी नींद में 
ले जाए उनकी पायल की खनक मुझे किसी और ही लोक में 
मैं नहीं चाहता की फिर से कोई आवाज उडाये मेरी नींद 
और मैं होता रहूँ परेशान, छतों के चक्कर काटकर 
मैं नहीं चाहता की कोई फिर से चुरा ले मेरे प्रेमपत्र, मेरी चौकस आँखों को धता बताकर 
और मैं ढूँढता रहूँ इन कागज़ के टुकडों को रातभर 
मैं नहीं चाहता की सोऊ एक कच्ची नींद 
और डेरा जमा ले कोई सपना मेरी पलकों पर 
मैं मरने के बाद सोना चाहता हूँ 
एक मीठी सी आराम वाली नींद 
जिसमे जागने की जरूरत नहीं 

ब्रजेश कुमार सिंह "अराहान"

२१ मई २०१२ 

गुरुवार, 10 मई 2012

हर सपना यहाँ टूट जाता है

पत्थरों की पहुँच हो गयी है आसमान तक
हर सपना यहाँ टूट जाता है

हवाओं में घुल रहा है सियासी जहर
आम आदमी का दम घुट जाता है

अफसरों की जेब में आराम फरमाता है राहत राशि का पैसा
गरीब आदमी यहाँ भी छूट जाता है

इक कोहराम मचने की चाह जन्म लेती है जेहन में
जब सब्र का पैमाना फूट जाता है

दूसरों की भलाई में लगा है 'वो' जब भी
उसका कोई अपना रूठ जाता है

जो भी बनते है 'कर्ण' यहाँ
उनका कवच कुंडल लूट जाता है

ब्रजेश कुमार सिंह "अरहान"





मंगलवार, 8 मई 2012

"एक अच्छा लेखक बनने से पहले हमें एक अच्छा पाठक बनना पड़ता है"

बड़े दिनों से मैं ये सोच रहा था की मुझे भी अब एक ब्लॉग  लिखना चाहिए पर मैं इसी असमंजस में था की मैं लिखूं तो क्या लिखूं, किस विषय पर लिखूं. दिमाग में चल रहे ये विचार मुझे अब तक लिखने से रोके हुए थे पर आज मैंने यह तय कर लिया की बिना व्याकरण, शैली, शिल्प और विषय वस्तु की परवाह किये बगैर जो मन में आएगा लिख डालूँगा.  और इसी लिए मैं आज इस ब्लॉग पोस्ट से पहली बार अपने ब्लॉग में कविता से अलग कुछ लिखने जा रहा हूँ.

बचपन से ही मुझे पत्रिकाएं, कॉमिक्स और उपन्यास पढने का शौक था हालाँकि  उस समय बालहंस, नन्हे सम्राट,
चम्पक, नंदन, नन्हे सम्राट इत्यादि  पत्रिकाएं ही पढने को मिलती थी. कॉमिक्स के नाम पर हम राज कॉमिक्स पढ़ा करते थे, नागराज, डोगा, ध्रुव, फाइटर टोड्स, परमाणु, एन्थोनी, गमराज, भोकाल,  और बांकेलाल ये हमारे चहेते कार्टून चरित्र हुआ करते थे. और उन् दिनों हम इन्ही चरित्रों से प्रभावित होकर हीरो विलेन का खेल भी खेलते थे जिसमे मैं हमेशा विलेन का किरदार निभाता था. उपन्यास की बात करें तो उस समय हमारी पहुँच पिनोकियो, ८० दिनों में विश्व यात्रा, गुलिवर'स ट्रेवेल्स तक ही थी और वो भी हमने इनका हिंदी अनुवाद ही पढ़ा था.  कुछ बड़ा होने पर सुमन सौरभ, क्रिकेट सम्राट, Reader's Disget, इत्यादि पत्रिकाओं के पाठक  बने और पढ़ते पढ़ते लिखने का शौक  भी पाल लिए. मैं उस समय सातवीं कक्षा का छात्र हुआ करता था जब मैंने अपनी पहली कविता लिखी थी. यह घटना मेरे जीवन की एक क्रांतिकारी घटना थी. जिसके प्रभाव ने से हम इतने प्रभावित हुए की आगे चलकर कवि बनने का सपना पल लिए. लेकिन जब कुछ बड़े हुए और जब पता चला की कविता किस चिड़िया का नाम है तब हमको आटे दाल का भाव मालूम चल गया और हम दिल से कवि बनने का ख़याल निकाल दिए, लेकिन कविता और साहित्य में रूचि बनी रही. लिखने का क्रम अब  भी जारी है पर सर से कवि बनने का भुत काफी हद तक उतर चुका है. अब ज्यादा समय पढ़ने में बितता हैं.

"एक  अच्छा लेखक  बनने से पहले हमें एक अच्छा पाठक बनना पड़ता है"

अरहान