गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

अज़नबी

अपनों के शहर में अनजान हूँ।
गुमनामी कि मै पहचान हूँ।
तंग अंधेरी गलियों मे सिमटा
रौशनी का अरमान हूँ।

वो चिंगारी हैं जलाना उनकी फ़ितरत है।
ये जानते हुये भी कि वो जलातीं हैं।
जलना हमारी हसरत है।
खुद जल के अंधेरा दूर कर रहा
मैं सिरफिरा कैसा इंसान हूं।
अपनों के शहर में अनजान हूँ।

तन्हाई के मरुस्थल में कांटो कि चुभन है।
रेतीली हवावों में अजीब सी घुटन है।
अपनेपन कि पिपासा है।
कहीं दूर दिख रहा है सरोवर, मुक्ति कि आशा है।
मरिचिकाओं का पीछा कर रहा,
हक़ीकत से अनजान हूँ।
अपनों के शहर में अनजान हूँ।

भीड़ में भटक रहा, कहने को सबके संग हूँ।
भेदती है अपरिचित निगाहें, जाने किस समाज का अंग हूँ।
प्रत्यक्ष के माधुर्य, परोक्ष के कटुता से दंग हूँ।
जले पे नमक छिड़के वो फिकी मुस्कान हूँ।
अपनों के शहर में अनजान हूँ।

यहॉ आस्तित्व के मेरे, किसी को भान नही,
शून्य हूँ यहाँ पर भगवान नही।
दुखों का उत्थान हूँ,
खुशियों का अवसान हूँ।
अपनों के शहर में अनजान हूँ।

ब्रजेश सिंह