गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

बदलाव

उनकी नजरो के जबसे हैं  शिकार बने
तबसे मर्ज-ए -मोहब्बत में हैं बीमार बने 
वो पलट के पूछते भी नहीं हाल हमारा 
हम ही मरीज और हम ही तीमारदार बने 
हंटर चला देती हैं हम पर इनके जैसी शोख हसीनाएं 
बेशर्म हम हैं जो इन जैसो के आशिक हर बार बने 
जबसे शौक़ चढ़ा है उनको रंगीन चुन्नियों का 
तबसे हम खुद में ही एक मीना बाजार बने 
मुस्कुराकर कभी जिसने हमको देखा भी नहीं 
हम  है की उनकी मुस्कराहट के तलबगार बने 
जबसे पिया है एक कतरा उनके शरबती आँखों का 
तबसे हम हैं आबशार बने 
रात दिन है आस की वो आएंगे करीब 
घर की चौखट पे खड़े खड़े हम चौकीदार बने 
सुनायी देती है कानो में जबसे उनके सांसो  की मौसीकी 
उनके सरगम में उलझे हम सितार बने 
छीनने लगी हैं वो छनकाके  पायल, करार हमारा 
उनकी कदमो की आहट  सुनकर हम बेकरार बने 
इश्क के अंजुमन में ऐसे हुए हम गिरफ्तार 
की काबिल से बेकार बने 
ऐसा लुटाया हमने उनपे अपना सबकुछ 
दुनिया की बात छोडिये हम खुद के है कर्जदार बने 
इतनी मोहब्बत , फिर भी हासिल कुछ नहीं 
हम  चाइनीज  सामानों के खरीदार बने 
"एकतरफा इश्क " शीर्षक से छपी एक कहानी 
हम कहानी के एक अहम् किरदार बने 
डूब गए गुमनामी के समंदर में 
इश्क में हम जो इतने वफादार बने 
वो बेखबर मेरे इश्क से, माशूका बन गयी किसी और की 
और हम देवदास के दिलीप कुमार बने 

अराहन 



वापसी

लौट जाना चाहता हूँ मैं फिर से उसी गली में 
जहाँ वर्षों से मेरे इन्तेजार में खड़ा है एक खंडहरनुमा घर
अपने खिडकियों में कुछ बेचैन आँखों को टाँके हुए
अपनी दरकती दीवारों में टूटने का सबब संभाले हुए
लौट जाना चाहता हूँ मैं फिर से उसी गली में
मैं लौट जाना चाहता हूँ फिर से उसी घर में
जिसके अहाते में चावल चुन रही एक बूढी औरत चौंकती है कौवों की कांव कांव पर
उसे अबी भी यकीन होगा इस कहावत पर की
"सुबह का भुला लौटता है शाम को"
और इसी लिए हर शाम दिया रख जाती होगी दरवाजे पर
मैं लौट जाना चाहता हूँ उसी घर में
जिसके कमरे में एक बूढा
अख़बार में ढूंढ रहा होगा गुमशुदा लोगों की फेहरिस्त में किसी का नाम
और खुद को दे रहा होगा तसल्ली की
दुनिया के किसी कोने में जल ही रहा होगा उसके घर का चिराग

अराहान 

आजादी

हमलोग जेल की दीवारों पर
लिखते रहे खून से  आजादी की कवितायेँ 
जेल के रोशनदान से भेजते रहे 
आजाद हवाओ को प्रेमपत्र 
हाथो में जडी लोहे की बेड़ियों से भी की हमने 
अपने आजाद दिनों की बाते 
दीवाल पर रेंगती छिपकलियों को भी हमने बताया 
की 6X 8 के इस तंग कमरे में भी ढूंढा जा सकता है एक आजाद कोना 
एक अपना कोना जहाँ हम गुलाम होते हुए भी जाता सकते हैं अपना स्वमित्व 
जी सकते हैं एक बादशाह की तरह इस काल कोठरी में 
हम लोगो बीस साल जेल में कैद नहीं थे 
यूँ कहें तो हम लोगो ने जिया था उन बीस सालो को 
एक आजाद पंछी की तरह 

अराहान 

26 दिसंबर 2012